Friday, November 16, 2007

कभी यूँ ही शाम की तन्हाई में

कभी यूँ ही शाम की तन्हाई में
जब चेतना मुझसे सवाल करती है,
बात कुछ ऐसी सवालात की गहराई में
की आत्मा भी उसमे उतरने को डरती है,

चंद बातें ऐसी जो मनोभाव
को समूल झकझोर दे,
ज़रा इन प्रश्नों पर गौर करें
इन सवालों पर थोड़ा ज़ोर दे...

कब तुमने राह खड़े
भिखारी को भिक्शा के साथ
करुणा की दीक्शा भी दी थी,
ज़िन्दगी के तमाम इम्तहान
के पीछे छिपी
असली परीक्शा भी दी थी...

मित्र का दुखड़ा कोई सुन
आँसू ही नही छलके पलकों से
ह्रिदय तुम्हारा रोया था,
और खुशी की बात पे कोई
होंठ नही दिल के आँगन से
मुस्कुराहट का गुलदस्ता खोया था....

भगवान,खुदा,वाहे गुरू,ईशू आदि
शब्दो को इंसानों में भेद का
साधन नही माना था तुमने,
पत्थर को पूजने की जगह
मस्जिद में सलाम करने के बजाय
भूमिगत निर्विकार भाव को पह्चाना था तुमने...

और क्या ऐसा भी हुआ की
ज़माने के निर्मित इन
तुच्छ समझौतों की ज़ंज़ीरों से
तुम मुक्त रहे,तुम पाक रहे,
इन्सानियत के शिखर पे
अपनी हस्ती को पहुँचाया
तुमने,भले ज़माने की
नज़र में खाक रहे...
अगर तुम्हारे जवाब
हक़ीक़तन हाँ में है,
तो तुम्हारे जैसा दूसरा
नही कोई जहाँ में है,
कोई खुदाई नही बदलेगी
हालात संसार के,
असली ताक़त तो छुपी
एक सच्चे इन्साँ में है ..............

and u can be that person...its difficult,but remember.......together we can and we will make a difference....
hope these words inspire u 2 at least make an attempt to discover the latent greatness that lies somewhere inside u.........