Tuesday, December 30, 2008

जब वी मेट...

"ये वाली खिड़की भी बंद कर दूँ?"

"एज़ यू विश"

"कहाँ जा रहे हो आप लोग?"

"बोकारो...और तुम?? "

"राँची...नही मुगलसराय,बनारस के पास है..राँची के हम रहने वाले है"


रात के करीबन दस बज रहे थे.ट्रेन छूटे कोई एक घंटा हुआ होगा.आमने सामने खिड़की वाली सीट पर बैठे दो लोगो के बीच ये पहली बातचीत थी...एक शुरुवात थी...


"प्रथम,मेरा नाम...इंजीनियरिंग का पहला साल खत्म हुआ है...और आप??"

"नंदिनी,मैं तो क्लास टेन में हू,वैसे मुझे....जाने दो तुमको अजीब लगेगा"

"नही.. बोलिये ना"

"पहले तो ये आप बोलना बंद करो,अजीब नही लग रहा तुमको?"

"क्यों,आप छोटे हो इसलिये.हमको तो आदत है,आपको अजीब लग रहा होगा...और मेरा हम-हम करके बात करना भी"

"सच कहूँ तो मुझे खुद ऐसे ही बात करने की आदत थी.हम लोग पाँच साल पहले ही दिल्ली आये.बचपन बिहार में बीता,और आज भी बिहारी लोग,और बिहारी बोली,दोनो ज़्यादा अच्छे लगते है"

"चलिये अच्छा है...भई हम तो पक्के बिहारी है,बनने को तो झारखंड बन गया पर दिल तो बिहार का है.हमको भी दिल्ली,कलकत्ता जैसे शहर बिल्कुल पसंद नही.इतना भागता दौड़ता जीवन मेरे टाईप का नही"


फ़िर इसी तरह दोनो के 'टाईप' पे कुछ देर बातें हुयी.नंदिनि के अलावा उसके साथ उसकी मा थी,जो बाकियो कि तरह् नींद में लीन थी....और प्रथम...


नंदिनी- "तुम लोग दिल्ली घूमने आये थे?"

प्रथम- "लोग?..हम अकेले आये है"

"नही तुम उस आंटी से जैसे बात कर रहे थे मुझे लगा तुम लोग साथ हो.परिचय कब हुआ तुम्हारा?"

"उनसे..कभी नही,बस बात करने लगे.ट्रेन मे तो ऐसे ही है हम,सबसे बतियाते चलते है"


दोनो बतियाते चले,प्रथम को सुबह उतरना था,इसलिये वो रात भर जगने वाला था.बोकारो बहुत बाद में था,मगर नंदिनी ने उसे कह दिया कि वो रात भर उसे जगाये रखेगी..और बतियाते चलेगी...

नंदिनी:"साईंस और साईंस वालो से मुझे बहुत डर लगता है,बहुत पढ़ाकू होते है वो लोग"

प्रथमः "हमारी तो पढ़ाई छूट ही गयी.तुम्हरी उम्र में शायद सचमुच पढ़ाकू थे.पर अब सारी लाईफ़ की फ़िलौसोफ़ी बदल गयी है.लगता है जैसे पैसे का कोई मोल नही...संतुष्टि तो एक एहसास है..अमीर गरीब कोई भी दिल में पैदा कर सकता है...(बाहर झाकते हुये)कौन सा स्टेशन आया?"

"बोलने की बात है ये बस.स्टेशन पे सोये इन लोगो को देखो.दो टाईम का खाना मुश्किल से मिलता है इन्हे.सर पे छत नही है,तुमको लगता है ये लोग खुश हो सकते है."

"ऊपर अंबर,नीचे ज़मीं है,इतना बड़ा घर कोई नही है...मुझे तो ये लगता है इनके बारे में.तुम इसे बेकार का फ़लसफ़ा कहके झुठला सकती हो पर हम तो यही मानते है,खुशी बस खुश रहने से मिलती है,और कुछ नही चाहिये "

"मैं तुम्हारे जैसे इंसान से ज़िंदगी में पहले कभी नही मिली,पागल हो तुम.तुम्हारे बात,तुम्हारी सोच,यहा तक की दिल्ली आने कि तुम्हारी वजह.खुशी और उगर्वाद पर ये फ़ंडे...जो भी हो, अच्छा बहुत लग रहा है तुमसे बात करके."

(प्रथम...मुस्कुराते हुये)

"शुक्रिया..वजह का तो ठीक है,खुशी का फ़ंडा भी..उगर्वाद वाली बात में क्या अजीब लगा?"

"अच्छा,कोई हमे आके गोलियाँ मारता है,तबाही मचाता है...पूरे देश में गुस्सा है,कहीं डर है...और तुम कहते हो कि हुमे उनको समझने की कोशिश करनी चाहिये जिन्होने ऐसा किया"

"मेरा तो यही मानना है.खालिद हुसैनी को पढ़ोगी तो मालूम होगा अफ़गान का इतिहास,जिसके कारण आज मार-काट वहाँ का कल्चर बन गया है..और पाकिस्तान..वो हमको क्या मारेगा,हमसे लढ़ने में और हथियार बनाने मे तो वो देश खुद बर्बाद हो गया.हम सालो पुराना इतिहास नही बदल सकते,उससे पैदा हुये हालात...सिचुएशन, नही बदल सकते,इसलिये आसान रास्ता निकालते है.इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ दो और दुनिया को जंग का मैदान बना दो.तुमको मेरी ये सोच अजीब लगती है और मुझे........"

रात के दो बज रहे थे..कुछ घंटो में एक दूसरे को वो दोनो बहुत समझ गये,वो भी एक दूसरे से बहुत अलग होकर...सबसे साधारण से लेकर सबसे खास बातों पर बातें हुई...

"याद रखोगी न हमको...बाद में"

"मेल-आईडी दी है ना,याद दिला देना"

"पता नही पर मेरी गट फ़ीलींग कहती है की वी विल लूज़ कौन्टैक्ट..वजह तो कुछ भी हो सकती है..ज़िंदगी ऐसी ही है...वैसे मैं तुमको नही भूलूँगा,पक्का"

"अच्छा अगर मैं भूल गयी तो क्या करोगे..मत बोलना और्कुट में सर्च करोगे,मैं उसे जौईन नही करूँगी"

"मेरा जवाब वही होता ...अच्छा उसके अलावा...कुछ नही..और क्या कर सकते है...याद कर लेंगे बस"

"बस?"

"अच्छा चलो तुमपे ब्लौग लिख देंगे,एक पोस्ट तुम्हारे नाम....वैसे उम्मीद करेंगे ऐसा पोस्ट ना लिखना पड़े कभी"

और दोनो मुस्कुराने लगे...गाड़ी चलती गयी....रात चढ़ती गयी......

Saturday, December 27, 2008

है और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,कहते है की गालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और...



मिर्ज़ा गालिब..एक नाम नही एक मुकाम है..आज(27 दिसंबर) उनकी 212वीं जयंती है...मैं गालिब जी को याद करते हुये,उनके दस शेर जो मुझे बहुत पसंद है वो पाठकों से बाँटता हू...इनके हज़ारों शेरों में से ये दस शेर चुन लेना,ईमानदारी से कहू तो एक 'फ़ौर्मलिटी' ही है..बस मियाँ असद को आज के दिन याद करना था,और वो पाठक जो भूल गये हो,उनको याद दिलाना था तो सोचा कुछ शेरों से रू-ब-रू हो ले...गालिब हमारे बीच है और हमेशा रहेंगे...आमीन



इश्क ने 'गालिब' निकम्मा कर दिया।
वरना हम भी आदमी थे काम के।।

उभरा हुआ नकाब में है उनके एक तार।
डरता हू मैं कि ये न किसी की निगाह हो।।

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक।
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।।


हर कदम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायां मुझसे।
मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबां मुझसे।।

नक्शे-फ़रियादी है किसकी शोखि-ए-तहरीर का।
कागज़ी है पैरहन हर पैकरे-तस्वीर का।।

'गालिब' बुरा ना मान जो वाईज़ बुरा कहे।
ऐसा भी कोई है सब अच्छा कहे जिसे।।

उनके देखे से आ जाती है मुँह पर रौनक।
वो समझते है बीमार का हाल अच्छा है।।

हम है मुश्ताक और वो बेज़ार।
या इलाही, ये माजरा क्या है।।

जब की तुझ बिन नही कोई मौजूद।
फ़िर ये हंगामा-ऎ-खुदा क्या है।।

ज़िक्र उस परीवश का और फ़िर बयाँ अपना।
बन गया रकीब आखिर,जो था राज़दाँ अपना।।

Friday, December 26, 2008

सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो!!

एक रोज़ एक शायर महाशय गुज़र गये,जैसे बाकी सब मरते है कुछ कुछ वैसे ही..हमेशा तन्हाई में रहने वाले देवदासनुमा आदमी थे,अपनी शायरी की दौलत किसी के साथ बाँटी नही थी। दौलत तो पीछे छूट गयी,जैसे बाकी छूट जाती है कुछ वैसे ही...

उनके सपूत का नाम भोला था,नाम का भोला और काम का भी भोला।और एक खास बात, जनाब को शायरी की कोई समझ नही थी। पर पिताजी की "दौलत" जब इनके हाथा लगी तो उसे लोगो के बीच सुना सुनाके बहुत तारीफ़ बटोरी इन्होने।

जल्दी ही सबको पता था की भोला शायर है,और खास अवसरो पे उसे शेर सुनाने ज़रूर बुलाया जाता था.और वो जो सही समझता,उस कविता य गज़ल को लेके चल जाता...और कर देता अर्ज़।
एक बार शादी के मौके परः

ताउम्र याद रहेंगे फ़ेरे सात वो,
कुछ ऐसा कर गये मेरे साथ वो,
इसी तरह की रात थी,
जब एक घर पहुँची अपनी बारात थी,
रस्म-रिवाज हमने निभायी थी,
और मुसीबत गले से लगायी थी,
शादी के बाद का नज़ारा क्या कहना,
वो 'दर्द' दोबारा क्या कहना,
शादी ब्याह एक नौकरी है
तन्ख्वाह में बीवी मिलती है
और बोनस में बच्चे मिलते है,
झूठे सपने हासिल होते है
और प्रौब्लम सच्चे मिलते है,
तन्ख्वाह का यारों क्या कहना
ज़िंदगी में सिर्फ़ एक बार मिलती है,
और पार्ट टाईम अगर करना चाहो
तो गालियाँ बेकार मिलती है!!


उसके बाद तो भोले की जो हालत हुई,उसने तौबा कर लिया किसी जश्न में जाने से। अब ऐसे आदमी की एक ही मंज़िल हो सकती थी। तो भोला को एक मरनी मे शोक भरी कविता सुनाने का अवसर मिला...उसकी कविता,जैसे बाकी सब उसकी थी ना, कुछ कुछ वैसी ही,चलिये सुनते हैः


मरने वाले की कद्र कहाँ
तेरी कब्र पे यहा सब थूकेंगे,
तेरी प्रौपर्टी पर नज़र है सबकी
मुँह मारने से कहा ये चूकेंगे,
अपने पीछे तू छोड़ गया
दौलत के इन भूखों को,
आँखो में झूठी बरसातों को
खेतों में सच्चे सूखों को,
मरने वाले लानत तुझपर!!
लानत तेरी जात पर,
मर-कट रहे है इंसाँ देखो
बेमतलब की बात पर...




मरने वालो और उसके रिश्तेदारो की इतनी तारीफ़ करने के बदले में भोला को 'अच्छा खासा' इनाम मिला। ऐसी मेहमाननवाज़ी के बाद उसने फ़ैसला किया की किसी के मरनी पे नही । ज़ाहिर सी बात है उसे एक ही जगह पहुँचना था,पड़ोस में एक बच्चे के जन्म पे अपने पिता का एक शेर चुराके पहुचा..आईये हम भी सुनेः


माना बच्चे भगवान की सूरत है,
पर क्या हमको इनकी ज़रूरत है,
पहले ही आबादी क्या कम है
जो और मुसीबत हम पाले,
बेहतर ये है की अब इसका
कोई प्राक्रतिक हल निकाले,
ये भीड़ जमाना बंद करो,
छोटे परिवार को पसंद करो,
धरती देती है आवाज़ तुम्हे,
बदलना होगा ये अंदाज़ तुम्हे,
खाने वाले गर ऐसे बढ़ते रहे
फ़िर एक रोज़ नही मिलेगा अनाज तुम्हे....


बस इतना कहना था की मौजूद लोगो का प्यार उसपे उमड़ आया...उसने फ़िर कभी कोई कविता नही सुनायी...इतना बुरा हाल हुआ उसका,जैसे बाकी चुराये शेर सुनाने वालों का होता है ना, कुछ वैसा ही :)

थोड़ा सा व्यंगात्मक हो जाये...


पहुँचे थे एक कविता प्रतियोगिता में,
पहला नंबर अपना ही था,
पहली लाईन सुनायी...


'ज़िंदगी एक कविता है'
पहली सीट पे बैठे एक सज्जन बोले
तुमको कैसे पता है?
शायराना उत्तर दिया
जीवन दोनो के बिन सूना है,
उधर से आवाज़ आयी
आदमी है या नमूना है,
गिड़गिड़ाये हम,
एक लाईन तो
आराम से बोलने दो भाई,
तो जवाब था-हम नेता है
जनता को परेशान कर
होती है अपनी कमाई...

ज़िंदगी कविता हो ना हो
पर अपनी ज़िंदगी
एक गमसीन शायर की
गज़ल हो चुकी थी,
उस नेताजी की तमाम
कोशिशे सफ़ल हो चुकी थी,
काव्य-पाठ के अरमान सो गये
और भागने के अरमान जाग गये,
मौके की नज़ाकत को समझ
हम सिर पे पाव रख भाग गये....


अगले दिन खबर मिली
हम प्रतियोगिता जीत गये
सोचा हमने,
अपनी एक ही पंक्ति का
ये कमाल होगा,
ये खबर सुन,
उस नेता का क्या हाल होगा...


तब एक मित्र ने एहसास दिलाया हमे
की हम नेताजी के कर्ज़दार हो चुके थे,
पहल नंबर तो अपना था
और बाकी...
नेताजी के डर से फ़रार हो चुके थे!!!



ये हास्य-व्यंग में मेरी पहली कोशिश थी,जो तीन-साढ़े तीन साल पहले लिखी गयी थी..डायरी के पन्ने पलटते हुये इसपे नज़र गयी तो सोचा इसे ब्लौग पे डाल जाये...आप सबके सुझाव क इंतज़ार करूँगा,हस्य-व्यंग में काफ़ी समय से कोई कोशिश नही की है..उम्मीद है अब प्रेरणा मिलेगी

Tuesday, December 23, 2008

हम ही नाहक दीवाने हुए !!!














आज तलक जो यही किस्से सुनकर सयाने हुए,
अंदाज़-ए-बयाँ बदला तो कहते है हम दीवाने हुए

मेरी कहानियाँ हकीकत हुआ करती थी तुम्हारी,
आज मेरे असलियत के वाक्ये सब फ़साने हुए

हमारी ही नादानी से हुआ है आलम ये विशैला,
ज़मीं डगमगायी तो चांद पर जाने के बहाने हुए

हम दोनो पर ही तो गोली चलाने आया था वो नादान,
हमने सही दुश्मन पहचाना, तुम एक कौम से बेगाने हुए

चाहे कहीं की भी पाक मिट्टी हो , जड़ तो यहीं पर है,
हिंदुस्तान में बहकाये गये तो अफ़गान में ठिकाने हुए

इतना समझा के जब हम बोले की जंग नही करना,
ऐसे वतन का वास्ता दिया,जैसे हम बैठे है दीवाने हुए

Dedicated to the philosophy of unity of various beliefs and religions...and its increased importance during times of terror...during the difficult times...the philosophy of peace and prosperity...for all... aameen :)





Monday, December 22, 2008

बेखुदी मे ये कलम आप मेरी ज़ुबान होती है...

ज़िंदगी खुद एक रोज़ अपनी मौत का सामान होती है,
तभी ज़िंदगी इतनी मुश्किल,मौत इतनी आसान होती है

अपनी बुराईयों को खुद पे कभी हावी ना होने देना,
अलग इंसानो की भी परछाईयाँ एक समान होती है

सिर्फ़ तेरे आ जाने से बज़्म में रौनक नही है छायी,
देख तेरे चले जाने से कहाँ ये महफ़िल वीरान होती है

यकीनन झूठी करते है या झूठ कहते है वो लोग,
जो कहते है जहाँ में रस्मे मोहब्बत आसान होती है

या तो जला देती है या फ़िर ठुकरा ही देती है,
शमा कहाँ कभी किसी परवाने पे मेहरबान होती है

इसकी फ़ितरत पे ना हँसी आये है ना रोया ही है जाये,
वो ज़िंदगी जो ज़िंदादिली की हद से परेशान होती है

वो मुझसे पूछते है जब भी राज़ मेरी शायरी का,
क्या बताऊँ,बेखुदी मे ये कलम आप मेरी ज़ुबान होती है

an amateurish attempt at ghazal writing...yet,this has been a more satisfying attempt for me...feels like am getting back into my zone :)

Friday, December 19, 2008

नाम गुम जाएगा,चेहरा ना बदल पायेगा !!!

"एक तेरा नाम ही मुकम्मल है,इससे बेहतर नज़्म क्या होगी"

गुलज़ार जी की ये पंक्ति ज़बा पे ज़रा चढ़ गई थी,

और अपनी पोएटिक सुई उस रोज़ जैसे इसी शेर पे अढ़ गई थी,

और चढ़ गई चढ़ गई नशीली सी गलतफ़हमी जिसे उसी रात उतरना था,

और एक मुकम्मल हकीकत को एक झूठ के हाथों मरना था...

ऐसा नही की तेरा नाम लेके जी रहा था मैं

पर कभी तेरे नाम पे दिल तो धड़का था,

तेरी पहचान,मेरा अस्तित्व अलग अलग सही

इनको जोड़ने का कभी सपना तो देखा था,

किसी रोज़ नींद से उठकर सबसे पहले

यही नाम लिया होगा मैने,

कभी हँसी पे छलक आया होगा ये नाम

तो कभी आँसुओं में इसको पिया होगा मैने,

जिस नाम को ऐसा मान दिया,सम्मान दिया

मेरी उम्मीद उसके हाथो आज अपनी आबरू लुटाये बैठी है,

मेरी चाहत खुद से ही शर्मिंदा होकर

अंधेरे की जोत जलाये बैठी है

ज़माने भर से मुँह छिपाये बैठी है...

कैसे दिलाऊँ यकीं खुद को

कि नाम ही तेरा झूठा था,

मेरी दुनिया तुम्हारी थी

जो चाहत थी वो ले जाती

पर ये दर्द कैसे सहा जाये

एक झूठे पहचान से मुझको लूटा था...

मेरी हर कविता मुझसे बेहतर याद थी तुमको

जैसे मुझसे जुड़ी हर बात तुम्हारी चेतना का हिस्सा हो,

चाहे वो मेरी एक अधूरी कविता थी

या अपूर्ण सा कोई किस्सा हो,

और उस कविता का क्या जो तुमने

किसी खास के लिये लिखा था,

आज नज़र सवाल कर रही है

वो इस प्यासे सजल के लिये थी

या किसी प्यास के लिये लिखा था...

पर मैं तुमसे नफ़रत नही कर सकता

क्योंकि शायद कभी सच्ची मोहब्बत की ही नही,

मेरी तकदीर ने मेरी बेवफ़ाई को ही लौटाया है शायद

बस गुमनामी का एक नकाब पहना दिया है,

उसने कभी खन्ज़र घोंपा,कभी तलवार चलाया,

मैं बेबस..कभी शक्ल ना देखी,

तो कभी नाम ना जान पाया,

इस प्यार की नाकामी ही अपनी सबसे बड़ी सज़ा है,

और इस हार को एक नाम भी ना दे पाऊँ

शायद इसीलिये ऐसा हुआ है.....

और आज गुलज़ार जी के ये पंक्ति सार्थक लग रही है...

"प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम नाम ना दो"....

after a long long wait,I finally have managed to come up with a Hindi post(almost)...the break has been considerably long,and I guess I didnt write as well as I would have wanted to...also I would like to mention that this is a pure work of fiction and so dont pester me with questions about why such a sad poem.. :P

awaiting your feedbacks...and hoping...there are plenty more to come!!

Saturday, December 13, 2008

Mera Pehla Pehla Pyaar

Pehla Nasha,Pehla Khumaar..honestly this feeling in my life was gifted by certain other agents apart from the usual case of 'pretty faces'.Of course the highest common factor had its share,but thinking about childhood love,there are several others which come to my mind.So time for someconfessions,some of my earliest encounters with this sweet sensation,that world calls love....




CRICKET: I know I didnt start playing cricket,the first day of my life,yet its difficult to believe.Cricket has been my passion since time immemorial(for me).A mere thought of those cricketing days floods my heart with nostalgia.This love for the game had two aspects:playing it and other including watching and reading about it.As I mentioned,I find it difficult to believe that I didnt start playing the game the day I was born,on the other hand,I remember the roots of this 'watching aspect'.It started during 96 Wills World cup.Sachin's 127 against Kenya probably was the first century I witnessed.It was love at first sight and only a couple of years later,I was an expert on cricketing issues like half of the country's population.Michael Bevan remained my hero for the next 6 years that he played,and it was then that my weird habit of getting significantly attached to various people at the emotional level began.I cheered for Bevan every time he played well and when his career came to an abrupt end,I cried for almost a couple of hours.Indian defeats also often sent me into tears.'Cricket Samraat' became a must read for me,general knowledge for me meant remebering smallest of details about any cricket match that I saw or read about.Watching cricket matches was more important than most things, innumerable exams got messed up but cricket was the priority,after all it was my first love.The way it was all over my mind,I feel it literally qualifies to become my first crush.



Now to the playing aspect...however immodest it may sound,I will have to admit that i was gifted in some ways.My physique never allowed my shots to be dangerously powerful,still at an age when my age group was learning to have a proper grip on the bat I could play wristy shots.However much I hated Azhar,I loved the grace in his batting and tried to emulate it.Till the age of 10,I had no ambition part from becoming a cricketer.Strange though it may sound,there is almost no corner of my house where I havent played cricket.This is one among many things which make every nook and corner of my place so much special for me.Playing cricket,all by myself,for 4 to 5 hours at a stretch was a prt of my routine.Slowly sanity prevailed...mera pehla pyaar zinda raha,ab bhi hai...maybe it became more mature with time :)




RAJ COMICS: One thing which is common among childhood crushes is that you have incredible memory when it comes to matters pertaining them.I surprised myself a couple of years back while reading "Miss Killer" when I could recognise that this was the first comics I had read,again as a small kid.Reading comics started with Krook Bond and Bankelal actually which Papa used to bring for me,but I hardly have any recollection of those.Nagraj and Super Commando Dhruv were the ones who ensured that I fell in love again in my childhood.Soon Raj Comics were a part of my train journeys and my tender heart gave a special meaning to Raj comics in my life.I lost my entire set of comics once but such tragedies came and went,nothing could deter me.I remeber about certain journeys by the comics I bought during them.Super Commando Dhruva soon had an iconic status similar to that of Michale bevan.Well he wasnt a person,but as a child,I so much wished that he were.SCD comics maintained high standards for a long time and I followed the life of my hero very closely.My attempt to distance myself from comics began at an age of 13,but the bond was too strong.Present status: I have read almost all SCD comics released till date (Circus is one exception) and am still totally passionate about it.An year ago when I bought a comics from Ranchi station,after a significantly long break,I was in tears(yes actually),and since then whenever I buy a comics its a matter of sheer pleasure for me.Things have changed significantly,SCD comics arent as wonderful as they used to be,but I stand by it...after all its Mera pehla pehla Pyaar!!




RANI MUKHERJI: Ok so I did say that pretty faces had their share.I watched Ghulam as a 10 year old,and saw,what was the the most stunning thing of my life till then.Though I wasnt a complete novice when it comes to things one often feels for the oppositite gender,this was to be my first celebrity crush.It surprises me how I have been loyal to these childhood passions,those heroes that I had,and people I began to admire at a very tender age.Rani Mukherji has been my favourite or the past 10 years(and counting).She mostly acted in nonsense stuff earlier,but I didnt care much about that.For me she defined beauty,and was the most beautiful thing in the universe,the very thought of whose acted as a multiplying factor for my heart beat and adrenaline rate.Again the love never faded,but became more and more mature with time,and so did my favourite actress who went on to give some of the wonderful performances later.




HINDI: This was always coming,isnt it?Hindi,the language,is surely a part of very definition of my existence,something which makes me complete.The seeds for this life long association were sown a long time back and again without sounding immodest,will have to point that a latent talent was alwys there.In class 2,when we still used to practice improvement of handwriting in special booklets,and we were learning to build up proper sentences,I was writing stories,however stupid they maybe.Fantam and Fantama were my first heroes who were warriors that fought the devils."chattan fekna" was one of my favourite expressions.Udti khopdi and Khooni Khanjar were my earliest stories.I still swell with pride thinking about the fact that,as a 7 year old, I wrote a story about a knife taking revenge of a murder where it was used.During the "namaste" period of parties,my relatives used to ask me about my stories.Gradually my studies took over this mantle,people probably discarded the story writer as a childhood craze,but like most of my crazes of those days,this lived up to become my passion.For all those who know me,I dont need to mention that am still very much in love with Hindi,which again is among my earliest associations with love......


Thats it about Mera Pehla Pehla Pyaar...it was great recollecting those best days of my life..and I do hope the readers are encouraged to do the same :)