It was the all important final match of 20-20 world cup........the clash of rivals(on the field,off the field i always feel we are brothers)....anything woth importance from Indian cricket team was being celebrated,crackers burst and one could sense an early Diwali being celebrated.......but amidst all this i could notice something peculiar,something similar was also happening in any Pakistani success as well,and yes,there was no mistake........a community was indeed praying for Pakistan's victory...actaully,in the vicinity of our colony,is a locality with majority belonging to this so called 'minority section' of our country......and they wanted their country to lose and their religion to win........or was this the case...can the success of any religion lie in the failure of the nation...though such people are in immense minority,it indeed is alarming
but the point is whom to blame...there has to be some reason behind such a mindset.people really are still discriminated on the basis of religion etc....and all the crappy politics which takes advantage of such feelings and exploit it are to be blamed....and all those 'mature' people of the country are to be blamed who ever saw someone with a point-of- view which had anything related to issues like religion
this experience of mine has prompted me to present my feelings in the form of this poem...please do give ur valuable comments on it
ये मन्दिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,
देखो बाँट रहे इन्साँ को सारे,
उसने तो दी थी एक धरती
हमने खड़ी कर दी दीवारे
प्यार का गीत ना गाया लेकिन
धर्म का नारा खूब दिया,
चैन की वो तस्वीर बदल
ये खौफ़नाक नज़ारा खूब दिया,
प्यार के फ़ूल मिले थे और हमने
बना दी नफ़रत की तलवारें
अल्लाह से गुरू जुदा है क्यों,
भगवान से अलग खुदा है क्यों,
गर अलग नही ये एक दूजे से
सिर्फ़ एक को हमने चुना है क्यों
इन्साँ को खुशी क्यों देते है
ये झूठे बेमतलब के बँटवारें
देखो हवा में चीखें ये समायी है,
आज इन्साँ के पहचान की बारी आई है
,जहाँ में ऐसा कोई नही है
जो सिख,हिन्दू या मुसलमान नही,
फ़िर हर कदम पे ऐसे लोग है क्यों
जो सच्चे इन्सान नही.......
Sunday, September 30, 2007
Saturday, September 29, 2007
वो आसमाँ झुक रहा है ज़मीं पर
शाम जब यूँ ही तेरी याद आई,
निगाहों में छितिज की तस्वीर लहरायी,
एक नामुमकिन मिलन का आवलोकन
हर घड़ी,हर पल ये निगाहें करती है,
उम्मीद का लिबास पहने,विश्वास की चादर ओढ़े
एक छवि कैसे हौले से ह्रिदय में उतरती है,
हाय रे मानव
अपनी बेबसी पे बहानों का आवरण चढ़ाये जाता है,
झूठी नज़र,फ़रेबी नज़रिये का सहारा लिये
ज़मीं आसमाँ को मिलाये जाता है,
तुझे अपने साथ देख इसी कदर
मैं भी तो फ़ायदे उठाता हूँ
इन नेत्रों की असीमित छमताओं का,
मगर इस नादानी में बोध नही होता
जीवन के क्रूर,कठोर विशमताओ का,
मगर इस नामुमकिन द्रश्य को
अपनी ज़िन्दगी का ख्वाब माना है मैने,
जीवन के हर अधूरे सवाल को एक
मुकम्मल जवाब माना है मैने,
आज अकस्मात् ये गुमाँ हो रहा है
वो असंभव मन्ज़िल भी मिलेगी
किसी न किसी रोज़ में,
जैसे मुझको यकीं हो गया हो
आस्माँ को पाने वाला पहला इन्साँ
दरसल निकला था छितिज कि खोज में
(sorry for not being able to use the correct spelling of kshitij,but its due to limited technical awareness rather than the awareness of the lanuage)
निगाहों में छितिज की तस्वीर लहरायी,
एक नामुमकिन मिलन का आवलोकन
हर घड़ी,हर पल ये निगाहें करती है,
उम्मीद का लिबास पहने,विश्वास की चादर ओढ़े
एक छवि कैसे हौले से ह्रिदय में उतरती है,
हाय रे मानव
अपनी बेबसी पे बहानों का आवरण चढ़ाये जाता है,
झूठी नज़र,फ़रेबी नज़रिये का सहारा लिये
ज़मीं आसमाँ को मिलाये जाता है,
तुझे अपने साथ देख इसी कदर
मैं भी तो फ़ायदे उठाता हूँ
इन नेत्रों की असीमित छमताओं का,
मगर इस नादानी में बोध नही होता
जीवन के क्रूर,कठोर विशमताओ का,
मगर इस नामुमकिन द्रश्य को
अपनी ज़िन्दगी का ख्वाब माना है मैने,
जीवन के हर अधूरे सवाल को एक
मुकम्मल जवाब माना है मैने,
आज अकस्मात् ये गुमाँ हो रहा है
वो असंभव मन्ज़िल भी मिलेगी
किसी न किसी रोज़ में,
जैसे मुझको यकीं हो गया हो
आस्माँ को पाने वाला पहला इन्साँ
दरसल निकला था छितिज कि खोज में
(sorry for not being able to use the correct spelling of kshitij,but its due to limited technical awareness rather than the awareness of the lanuage)
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