मैं पहले लिखने की कोशिश नही करता था,पर लिखता बहुत था। अब कोशिश बहुत करता हूँ,पर लिखता कम हूँ। पहले दिल से लिखता था,अब दिमाग से। कभी जन्नत की उम्मीद मे लिखते थे,अब जनता की उम्मीद मे लिखते है। यही बेहतर है,जन्नत तो बस अहसासों मे मिला करती थी,जनता गाहे बगाहे हकीकत मे भी मिल जाती है। पहले विचार होते थे,शब्द तलाशा करते थे,अब तो बिन विचार के ही शब्द उभरते है। अब मेरा मन जानता है,की ये जो जनता है,उसको क्या जमता है।
सचमुच जब पुरानी डायरी उठाता हूँ तो अपना लिखा सब कुछ कितना बचकाना लगता है,और ईमानदार भी। और अब सब कितना अच्छा है,और समझदारी भरा। वास्तविकता ये है की लेखन की ऐकौनौमिक्स समझ आने लगी है। मार्केटिंग के नाते "जनता ऐनालीसिस" बहुत ज़रूरी है। अब अपना टार्गेट सेक्शन निर्धारित रहता है, कहाँ पर क्या क्लिक करेगा इसकी समझ हो गयी है। और इसी प्रकार लेखन की ऐकौनौमिक्स की समझ रखने वाले कयी लोगो को पढकर अपनी समझ और भी विस्तृत हुई है।
लोग कहते है मैं अब बेहतर लिखता हूँ,एक परिपक्वता आ गयी है। सचमुच ऐसा रूप,ऐसा शृंगार इससे पहले कभी ना था। बस संशय इस बात का है कि आत्मा अब उतनी खूबसूरत नही शायद,कविता जितनी अलंकृत हो जाए,आत्मिक सौंदर्य का मुकाबला नही। हाँ उसको फ़िर पहचान पाने और सराहने वाले लोग कम ही होंगे। बस इस रूप के साथ वो आत्मा की सादगी मिल जाए एक बार इस कवि को.... इसलिये कोशिश मेरी जारी है,मेरी कविता अभी अधूरी है ...