ये कविता मैने इस बार हिंद-युग्म की यूनिकवि प्रतियोगिता मे भेजी थी। ये शीर्ष 19 कविताओं मे भी शामिल नही हो सकी,शुरु मे मुझे काफ़ी बुरा लगा,क्योंकि एक आस तो लगी ही होती है,पर फ़िर मैने निर्णय लिया की इसे सकरात्मक रूप मे लूँ, और आगे और बेहतर लिख सकूँ ताकि हिंद-युग्म जैसे बड़े और प्रतिष्ठित मंचों पर भी एक पहचान बना सकूँ!!
आपके सुझाव और प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।
रेलवे स्टेशन...शख्सियत कुछ ऐसी,
ज़माने वाले जिसे पहचान नही पाते,
हज़ार हज़ार बार यहाँ आने जाने वाले
मुसाफ़िर भी सही अर्थ जान नही पाते,
खुद मे छिपाए हुए एक नायाब फ़लसफ़ा,
जिसे फ़्रूट स्टौल का रामू,बुक स्टौल का शंभू,
ही समझ सकता है,और समझा सकता है,
क्योंकि साथ इतना वक्त जो बिताया है,
या फ़िर बता सकता है,शायद एक कवि,
एक मामूली से स्टेशन मे भी जिसको,
ज़िंदगी का संपूर्ण सार नज़र आता है।
ज़िंदगी और स्टेशन...एक जैसे,कैसे,
स्टेशन एक मंज़िल भी है,एक सफ़र भी,
कोई बस चलता रहता है दिन भर कभी,
कभी कोई बैठा रह जाता है रात भर भी,
शायद किसी ने इसपे गौर ना किया हो,
यहाँ हर इंसान आता है,चले जाने के लिये,
और हर आने वाले को किसी ना किसी
का इंतज़ार होता है,ज़िंदगी भी तो बस,
बस,एक मुकम्मल इंतज़ार ही होती है,
और भला कैसा होता है इंतज़ार वहाँ,
हमे किसी के आने का इंतज़ार रहता है,
या अपने चले जाने का इंतज़ार रहता है,
मोहब्बत हो जाये,तो ज़िंदगी भी यही है।
जीवन मे लोग कितनी प्लानिंग किया करते है,
इसका,उसका,सबका,वक्त निर्धारित किया करते है,
पर तय नही होता कुछ,एक अंदाज़ा भर होता है,
हमारी ज़िंदगी की टाईमिंग हो,या रेलवे मे
ट्रेनों के आने जाने की,कुछ खास अलग नही,
एक दूजे के प्रारूप ही लगते है ये दोनो,ज़िंदगी,
और ज़िंदगी का एक छोटा सा पहलू।
इतना कुछ समान है,तो फ़र्क भी होगा,
फ़िर अपना कवि ही काम आता है,
और सूक्ष्मरूपी कुछ अंतर बतलाता है,
स्टेशन पे कौन कब आएगा,जाएगा,
इसकी घोषणा पहले ही हो जाती है,
ज़िंदगी मे अक्सर ऐसा नही होता,
कौन कहाँ से जाएगा,कहाँ पे आएगा,
ये भी बस स्टेशन पे ही तय रहता है,
तो अंत मे कवि बस इतना कहता है...
अगली बार प्लेटफ़ौर्म पे बैठे,आते जाते,
जाते आते, इसको उसको,उसको इसको,
देखो तो एक बार सोचना,रेलवे स्टेशन,
और ज़िंदगी,ने मिलके साजिश की है,
और भगाए जा रहे है...हर शख्श को बेतहाशा ।।
Wednesday, July 8, 2009
Saturday, July 4, 2009
कभी कभी गुज़रा वक्त गुज़रता नही
एक शाम को एक दिन, एक,दिन चुपके से आया,
दिन बोला,मेरे बिन तू,
अब तक कैसे रह पाया,
मेरे बीत जाने के बाद,
वक्त तूने कैसे बिताया ।
मैने ही तेरा हाथ पकड़,
उसके हाथों मे दे डाला था,
मेरा दिया दीवानापन था तूने,
दिल का अरमान निकाला था, अचानक जो मैं पीछे छूट गया,
भला खुद को कैसे संभाला था।
गुमसुम सा ताक रहा था,
बीते दिन की परछाई को,
अपनी तड़प,मजबूरी सारी,
बता गया उस सौदाई को,
एक मोड़ पे तू पीछे छूटा, अगली गली पे वो आई थी,
तू तो बीत गया लेकिन,
तेरी याद दिल मे समाई थी, गुज़रा वक्त गुज़रता नही,
अपनी खूश्बू दे जाता है,
अपने पीछे तन्हाई को,
गुमसुम सा ताक रहा था,
बीते दिन की परछाई को...
Wednesday, July 1, 2009
जागृति
बीता एक और दिन,
बीती एक और शाम,
और,कुछ और नाम,
जुड़े ज़िंदगी से मेरे,
हज़ार जतन के बाद,
कुछ को मना लिया,
कुछ रूठे बिन बात,
मेरे सामने खड़ी है,
देखो,एक और रात,
हर दिन,शाम,और रात
की तरह,बीत जाने को,
सोने जा रहा हूँ मैं,
अपने भीतर,फ़िर एक,
सुबह को जगाने को ...
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