Wednesday, July 1, 2009

जागृति

बीता एक और दिन,

बीती एक और शाम,

और,कुछ और नाम,

जुड़े ज़िंदगी से मेरे,

हज़ार जतन के बाद,

कुछ को मना लिया,

कुछ रूठे बिन बात,

मेरे सामने खड़ी है,

देखो,एक और रात,

हर दिन,शाम,और रात

की तरह,बीत जाने को,

सोने जा रहा हूँ मैं,

अपने भीतर,फ़िर एक,

सुबह को जगाने को ...

15 comments:

अजय कुमार झा said...

वाह जिन्दगी को इस दृष्टिकोण से तो देखा ही नहीं था..बहुत खूब....

राज भाटिय़ा said...

सोने जा रहा हूँ मैं,

अपने भीतर,फ़िर एक,

सुबह को जगाने को ...
बहुत खुब एक नयी आशा भरी कविता.अति सुंदर.
धन्यवाद

Udan Tashtari said...

गजब भाई!!

डिम्पल मल्होत्रा said...

nice...very nice...simple but bful poem..

vandana gupta said...

yahi jagriti hai......bahut badhiya.

Vandana Singh said...

wah bahut khoobsoorat
सोने जा रहा हूँ मैं,

अपने भीतर,फ़िर एक,

सुबह को जगाने को . isi ka naam jindgi yahi saccha ras hai jindgi ka

Sajal Ehsaas said...

aap sab logo ka in shabdo ke liye tahe dil se shukriyaa

Smart Indian said...

बहुत खूब!

Vinay said...

आपकी सुन्दर कविता ने मेरा मन जीत लिया

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विज्ञान । HASH OUT SCIENCE

Ria Sharma said...

ruthna manana to chalta rahta hai ..par ashvaadi hona sabse badi baat hai ..

saral shabdon main badi baat kah gaye !

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सोने जा रहा हूँ मैं,
अपने भीतर,
फ़िर एक,
सुबह को जगाने को ...
इन पंक्तियों का जवाब नहीं...
रचना बहुत अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई....

M VERMA said...

बहुत प्यारी कविता. जिन्दगी का नया दृष्टिकोण

Sajal Ehsaas said...

thank u everyone...

स्वप्न मञ्जूषा said...

शशक्त अभिव्यक्ति .......... गहरी रचना है ....... कमाल का लिखते हैं आप ..... लाजवाब

Unknown said...

Subah sayad jag bhi jayegi jane ye shaam na jane fir kab ayegi :)

b/w poem : simply beautiful :)