बाबरी के मलबे का एक अपाहिज सा ईंट
किसी तरह पहुँच गया गिरी दीवार के पास,
दीवार की एक ईंट से सामना हुआ
और सामने आये नफ़रत के वो शब्द,
अगर तुम हिंदू होते तो आज
मुझे इस तरह नीचे गिरना ना पड़ता
इस घायल ईंट कि अकल घूम गयी, वो बोला,
अगर 'तोड़ने वाला' हिंदू होता तो
तुझे क्यों गिराता, तुझसे क्यों लड़ता
कहते है साढ़े चार सौ साल पहले
मेरी जगह तेरे ही धर्म की ईंट खड़ी थी,
उस वक्त भी शायद एक कौम
दूसरे कौम से लड़ी थी,
अरे हमसे क्यों झगड़ते हो
हमने कब इन सब से कुछ पाया है,
गिराने वाले ने तो जब गिराया है
हम दोनो को ही गिराया है
दीवार के उस ईंट का अगला सवाल था,
की यहाँ जो सदियों से हुआ है
क्या तुझे इन सब का कुछ ख्याल था?
अरे बाहर लोगो को भी कुछ सच्चाई नही पता
तू बता, क्या तेरी जगह कभी मेरे धार्मिक भाई खड़े थे?
अरे कुछ खड़े हुये है तो कभी कुछ गिरे है,
ये सिलसिला तो चलता रहेगा जब तक ये सिरफ़िरे है,
सैकड़ों सालों बाद इसका तो ख्याल नही
की कहाँ हिंदू गिरे थे, कहाँ मुसलमान खड़े थे,
इतना ही याद है जब जंग हुई, इंसान लड़े थे
सच तो ये है की मुझे अपने धर्म की पहचान नही,
तुझे भी अपने धर्म का कोई ज्ञान नही,
मैने,तुमने, हम सब ने, एक धर्म को सिर्फ़ इसलिये अपनाया है,
कयोंकि जब से होश संभाला है खुद को उस धर्म से घिरा पाया है
अरे इस मिट्टी से बने है हम
यही धरती, यही मिट्टी अपनी पहचान है,
हम खाक मे मिले वो पत्थर है,
जिनके लिये बेमतलब बेफ़िज़ूल है,
कि कौन हिंदू है कौन मुसलमान है !!
दीवार के उस ईंट कि समझ अभागी,
इन बातों से अब जाकर जागी,
ऐ इंसां, जिस इमारत के लिये तूने इंसानियत बहा डाली,
अरे हमसे आके पूछ कि क्या हमारी असली पहचान है,
शायद अब हम ही है जो इंसान है
कयोंकि हमे तोड़ने वाले, तो सब ही हैवान है !!!
Sunday, October 31, 2010
Sunday, June 6, 2010
कभी माँग कर देखो आसमान मुझसे...
Dedicated to someone special :)
कभी माँग कर देखो आसमान मुझसे,
तोहफ़े मे पाओगे ख्वाबों की उढ़ान मुझसे,
तेरे आँखों की चांदनी मे अपना आशियाँ बना लूँगा,
जो चाहोगे उस चांद पर बनवाना एक मकान मुझसे।
जो माँगना है तो माँग लो आज तमाम सितारे,
कि मेरे होंठो से तेरे होंठो पे बिखर जायेंगे सारे,
और जो चाहो,तो परी,अप्सरा,या रानी बना दूँ,
मेरे दिल की सल्तनत तुम्हारी है,
जब कहो,महारानी बना दूँ !!
हसरत हो तो एक कविता भर से बना दूँ
तुमको इस जहाँ भर मे सबसे खूबसूरत,
बस ज़रा कहो तो क्या है तुम्हारी ज़रूरत!!
कि हवा का रूख बदलना कौन सा मुश्किल है,
की साँसों को साँसों से टकराने तो दो,और ज़मीं पे स्वर्ग का उतरना है मुमकिन,
कि हमे ज़रा अपने करीब आने तो दो!!
ये साँस तुम्हारी अमानत है,तुमको सौंप दूँगा,
अगर मेरी जान माँग लो मेरी जान मुझसे,
कभी माँग कर देखो आसमान मुझसे .....
कभी माँग कर देखो आसमान मुझसे,
तोहफ़े मे पाओगे ख्वाबों की उढ़ान मुझसे,
तेरे आँखों की चांदनी मे अपना आशियाँ बना लूँगा,
जो चाहोगे उस चांद पर बनवाना एक मकान मुझसे।
जो माँगना है तो माँग लो आज तमाम सितारे,
कि मेरे होंठो से तेरे होंठो पे बिखर जायेंगे सारे,
और जो चाहो,तो परी,अप्सरा,या रानी बना दूँ,
मेरे दिल की सल्तनत तुम्हारी है,
जब कहो,महारानी बना दूँ !!
हसरत हो तो एक कविता भर से बना दूँ
तुमको इस जहाँ भर मे सबसे खूबसूरत,
बस ज़रा कहो तो क्या है तुम्हारी ज़रूरत!!
कि हवा का रूख बदलना कौन सा मुश्किल है,
की साँसों को साँसों से टकराने तो दो,और ज़मीं पे स्वर्ग का उतरना है मुमकिन,
कि हमे ज़रा अपने करीब आने तो दो!!
ये साँस तुम्हारी अमानत है,तुमको सौंप दूँगा,
अगर मेरी जान माँग लो मेरी जान मुझसे,
कभी माँग कर देखो आसमान मुझसे .....
Tuesday, June 1, 2010
शर्त ये है की सूरत भी बदलनी चाहिए...
कोशिश है बिन कोशिश किये कुछ लिखने की। कल शाम को बैठा भी था, I.I.T,I.I.M से जुड़े कुछ मिथक तोड़ने हेतु एक लेख को उभार के लाने के प्रयास मे । कोशिश नही,तो प्रयास ही सही। ऐसे पाँच पेज भरने के बाद भी लगा जैसे कितना कुछ और है कहने को,बहुत से ज्वलंत विचार जो भीतर कहीं सो रहे थे,उनकी निद्रा भंग हुयी थी। पर मन मस्तिष्क को रात भर के मिले आराम मे ये व्याकुलता फ़िर सुप्तवस्था को प्राप्त हो गयी।
इसके अलावा कुछ व्यंग के मुद्दो को भी आजकल मन तलाशता रहता है। कुछ दिन हुये,सरकारि दफ़्तर जाने का इत्तफ़ाक बना था,वो भी एक नही दो दो दफ़ा,तब से मन मंदिर मे उस छवि ने घर कर लिया है जिसको हम आज भ्रष्टाचार का पर्याय मानते है। इस पर व्यंगात्मक रचनायें बनाने का स्कोप तो बहुत है,पर जो बात हमपे हर पल,हर वक्त, मुँह फ़ाड़ के हँस रही है,उसका मज़ाक क्या बनाना,जिसने हमारा तमाशा बना दिया हो,उसपे कटाक्ष करके मालूम करना होगा कि बेज़्ज़ती असल मे हुई किसकी। मुद्दा ये है कि मन का भड़ास निकालने के लिये लिखना है तो लिखने से आसान क्रिया कुछ नही। साँस लेना भी नही,क्योंकि हालात और प्रदूषण के मार से साँस लेना भी अब भारी लगता है। पर उद्देश्यपूर्ण लिखना हो तो इस क्रिया से कुछ प्रतिक्रिया के उत्पन्न होनी की अपेक्षा होती है। ज़ाहिर है,असर कम ही होता है।
अजीब लगता है की महान लेखको ने हमेशा अच्छी बातें ही लिखी,और हज़ारों लाखो लोगो द्वारा वो पढ़े गये,फ़िर समाज मे इसका असर इतना कम क्यों? किताब बहुतों ने नही पढ़ी हो,सिनेमा का असर भी नही नज़र आता। सामाजिक परिवर्तन के नाते कला की ताकत पे संशय मज़बूत होता जा रहा है मेरा,जैसा की मैने कहा मन का भड़ास निकालने के लिये लिख रहे है तो ठीक है,पर उद्देश्य क्रांतिकारी हो तो निराशा "औबवियस रिज़ल्ट" लगती है। अगर असर होता, तो लेखो में,कविताओं मे,कला के विभिन्न माध्यमोँ मे मौजूद ये युगांतरकारी सत्य, झूठ और भ्रष्टाचार के किस भूल भुलैया मे खोये हुए है। मुद्दा धर्म का हो,राजनीती का या ऐसे कयी और मुद्दे, हर सीस्टम एक नैतीक ब्रेकडाऊन की ओर बढ़ता दिख रहा है। परिवर्तन अगर कलम से आ सकता है, तो वक्त आ गया है की आए,वर्ना मन के भड़ास को निकालने के और कारगर तरीके है।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही,
शर्त ये है की सूरत भी बदलनी चाहिए ।
इसके अलावा कुछ व्यंग के मुद्दो को भी आजकल मन तलाशता रहता है। कुछ दिन हुये,सरकारि दफ़्तर जाने का इत्तफ़ाक बना था,वो भी एक नही दो दो दफ़ा,तब से मन मंदिर मे उस छवि ने घर कर लिया है जिसको हम आज भ्रष्टाचार का पर्याय मानते है। इस पर व्यंगात्मक रचनायें बनाने का स्कोप तो बहुत है,पर जो बात हमपे हर पल,हर वक्त, मुँह फ़ाड़ के हँस रही है,उसका मज़ाक क्या बनाना,जिसने हमारा तमाशा बना दिया हो,उसपे कटाक्ष करके मालूम करना होगा कि बेज़्ज़ती असल मे हुई किसकी। मुद्दा ये है कि मन का भड़ास निकालने के लिये लिखना है तो लिखने से आसान क्रिया कुछ नही। साँस लेना भी नही,क्योंकि हालात और प्रदूषण के मार से साँस लेना भी अब भारी लगता है। पर उद्देश्यपूर्ण लिखना हो तो इस क्रिया से कुछ प्रतिक्रिया के उत्पन्न होनी की अपेक्षा होती है। ज़ाहिर है,असर कम ही होता है।
अजीब लगता है की महान लेखको ने हमेशा अच्छी बातें ही लिखी,और हज़ारों लाखो लोगो द्वारा वो पढ़े गये,फ़िर समाज मे इसका असर इतना कम क्यों? किताब बहुतों ने नही पढ़ी हो,सिनेमा का असर भी नही नज़र आता। सामाजिक परिवर्तन के नाते कला की ताकत पे संशय मज़बूत होता जा रहा है मेरा,जैसा की मैने कहा मन का भड़ास निकालने के लिये लिख रहे है तो ठीक है,पर उद्देश्य क्रांतिकारी हो तो निराशा "औबवियस रिज़ल्ट" लगती है। अगर असर होता, तो लेखो में,कविताओं मे,कला के विभिन्न माध्यमोँ मे मौजूद ये युगांतरकारी सत्य, झूठ और भ्रष्टाचार के किस भूल भुलैया मे खोये हुए है। मुद्दा धर्म का हो,राजनीती का या ऐसे कयी और मुद्दे, हर सीस्टम एक नैतीक ब्रेकडाऊन की ओर बढ़ता दिख रहा है। परिवर्तन अगर कलम से आ सकता है, तो वक्त आ गया है की आए,वर्ना मन के भड़ास को निकालने के और कारगर तरीके है।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही,
शर्त ये है की सूरत भी बदलनी चाहिए ।
Monday, May 31, 2010
एक अधूरी कविता... एक बार फ़िर
मैं पहले लिखने की कोशिश नही करता था,पर लिखता बहुत था। अब कोशिश बहुत करता हूँ,पर लिखता कम हूँ। पहले दिल से लिखता था,अब दिमाग से। कभी जन्नत की उम्मीद मे लिखते थे,अब जनता की उम्मीद मे लिखते है। यही बेहतर है,जन्नत तो बस अहसासों मे मिला करती थी,जनता गाहे बगाहे हकीकत मे भी मिल जाती है। पहले विचार होते थे,शब्द तलाशा करते थे,अब तो बिन विचार के ही शब्द उभरते है। अब मेरा मन जानता है,की ये जो जनता है,उसको क्या जमता है।
सचमुच जब पुरानी डायरी उठाता हूँ तो अपना लिखा सब कुछ कितना बचकाना लगता है,और ईमानदार भी। और अब सब कितना अच्छा है,और समझदारी भरा। वास्तविकता ये है की लेखन की ऐकौनौमिक्स समझ आने लगी है। मार्केटिंग के नाते "जनता ऐनालीसिस" बहुत ज़रूरी है। अब अपना टार्गेट सेक्शन निर्धारित रहता है, कहाँ पर क्या क्लिक करेगा इसकी समझ हो गयी है। और इसी प्रकार लेखन की ऐकौनौमिक्स की समझ रखने वाले कयी लोगो को पढकर अपनी समझ और भी विस्तृत हुई है।
लोग कहते है मैं अब बेहतर लिखता हूँ,एक परिपक्वता आ गयी है। सचमुच ऐसा रूप,ऐसा शृंगार इससे पहले कभी ना था। बस संशय इस बात का है कि आत्मा अब उतनी खूबसूरत नही शायद,कविता जितनी अलंकृत हो जाए,आत्मिक सौंदर्य का मुकाबला नही। हाँ उसको फ़िर पहचान पाने और सराहने वाले लोग कम ही होंगे। बस इस रूप के साथ वो आत्मा की सादगी मिल जाए एक बार इस कवि को.... इसलिये कोशिश मेरी जारी है,मेरी कविता अभी अधूरी है ...
सचमुच जब पुरानी डायरी उठाता हूँ तो अपना लिखा सब कुछ कितना बचकाना लगता है,और ईमानदार भी। और अब सब कितना अच्छा है,और समझदारी भरा। वास्तविकता ये है की लेखन की ऐकौनौमिक्स समझ आने लगी है। मार्केटिंग के नाते "जनता ऐनालीसिस" बहुत ज़रूरी है। अब अपना टार्गेट सेक्शन निर्धारित रहता है, कहाँ पर क्या क्लिक करेगा इसकी समझ हो गयी है। और इसी प्रकार लेखन की ऐकौनौमिक्स की समझ रखने वाले कयी लोगो को पढकर अपनी समझ और भी विस्तृत हुई है।
लोग कहते है मैं अब बेहतर लिखता हूँ,एक परिपक्वता आ गयी है। सचमुच ऐसा रूप,ऐसा शृंगार इससे पहले कभी ना था। बस संशय इस बात का है कि आत्मा अब उतनी खूबसूरत नही शायद,कविता जितनी अलंकृत हो जाए,आत्मिक सौंदर्य का मुकाबला नही। हाँ उसको फ़िर पहचान पाने और सराहने वाले लोग कम ही होंगे। बस इस रूप के साथ वो आत्मा की सादगी मिल जाए एक बार इस कवि को.... इसलिये कोशिश मेरी जारी है,मेरी कविता अभी अधूरी है ...
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