Sunday, May 31, 2009

ज़िंदगी को बहुत प्यार हमने किया (एक लघु नाटक)- भाग 1

प्रस्तुत है एक नाटक,जो मैने अपने कौलेज की एक प्रतियोगिता के लियी लिखी थी। स्टेज पर इसे पेश करना एक बेहद सुखद अनुभव रहा था, और हमारी टीम इस प्रतियोगिता मे प्रथम आयी थी।उम्मीद है आप लोगो को पसंद आयेगी :)

पहला दृश्य - यमलोक का नज़ारा! यमराज विचारशील मुद्रा मे,साथ है उनकी सहायिका चित्रिगुप्ता

यमराज - कभी कभी मेरे दिल मे ख्याल आता है,इंसान कयों रोता है जब वो मर जाता है,जब धरती पे स्वर्ग जैसी जगह नही कोई,फ़िर यमलोक आने से वो कयों घबराता है।

चित्रिगुप्ता - हे यमराज, कह देती हूँ आज।हर युग मे,हर लोक मे,सुख मे,शोक मे,इंसान बस अपनी ज़िंदगी चाहता है।अब तो यमलोकवासी भी अपनी मर्यादा लाँघ रहे है,हमारे कुछ कर्मचारी धरती पे तबादला माँग रहे है।

यमराज - हाय,कहाँ कमी रह गयी।इन्हे हमने मौत दी,अपने हाथों से परवरिश की,मनुष्य आखिर धरती लोक में ऐसा क्या पाता है,जो उसको यमलोक से अधिक भाता है। आज हम अपने विमान मे उत्थान भरेंगे,और नीचे जाके धरती लोक का दौरा करेंगे।कह दो देवताओं से की अपने दरबार मे हमारे पृथ्वी टूर का बिल पास करवा दे।

(दूसरा दृश्य। दोनो का धरती पे आगमन हो चुका है,एक लड़की खाई मे कूदकर अपनी जान देने जा रही है,यमराज कि नज़र उसपे पड़ती है। )

यमराज - चित्रिगुप्ता,ये अप्सरा सी कौन है?

चित्रिगुप्ता - जीवन की ठुकराई एक बेचारी है,जो आज मौत से भी हारी है,आत्महत्या कर यमलोक जाने की तैयारी है।

यमराज - जहाँ एक इंसान ना मरने के लिये गिड़गिड़ाता है,रोता है,वहाँ पर ऐसा भी होता है।आज ऐसा अनिष्ट देख यमराज भी रो गया,कोई आओ,बचाओ इसे,ये तो नादान है,जीवन के मोह से अंजान है,तुम लोगो को क्या हो गया!

(एक पंडित का प्रवेश )

पंडित - ओम शांति ओम,जय जय शिव शंकर,हरे रामा हरे कृष्णा!! क्या हुआ बालिका?

लड़की - नगर पालिका! नगर पालिका मे काम करता था वो,मुझपे बेहद मरता था वो।एक रोज़ उसके बनाये पुल की तरह उसका वादा भी टूट गया।

पंडित - और तेरे जीने का आस छूट गया? कर दे मुश्किल जीना,हाय रे इश्क कमीना। जीना मरना तो ऊपर वाले का खेल है,मत उसका अपमान कर,पर उससे तेरी बात करा दूँ,गर तू मेरा कल्याण कर,दान कर,दक्षिणा कर,फ़िर चाहे जहाँ मर्ज़ी मर। पूजा पाठ जाप कर दूँगा,तेरे पाप को निष्पाप कर दूँगा।

यमराज - बस ये धर्म मे अधर्म की गंदी मिलावट अब और ना सह सकूँगा,चलो चित्रिगुप्ता,अब मैं यहाँ एक पल ना रह सकूँगा।

(नाटक अभी बाकी है मेरे दोस्त।दूसरे और अंतिम भाग को लेके जल्द मिलता हूँ,तब तक अपनी राय और सुझाव देते रहे,और इस नयी कोशिश मे मेरा हौसला बढ़ाये )

7 comments:

रावेंद्रकुमार रवि said...

रोचक है!

Urmi said...

पहले तो मैं तहे दिल से आपका शुक्रियादा करना चाहती हूँ कि आपको मेरी शायरी पसंद आई! दरअसल मैं पेंटिंग करती हूँ और अगर आप गौर से मेरी शायरी पढियेगा तो आपको बिल्कुल सही लगेगा शायरी के साथ मेरा बनाया हुआ चित्र! सबके सोचने का अलग अलग तरीका होता है और इसी वजह से आपको ज़्यादा पसंद नहीं आया!
बहुत बढ़िया लिखा है आपने!

निर्मला कपिला said...

pahalee baar aapake blog ko dekhaa hai kese najar se chhupa reh gayaa naheen keh sakatee aapakaa ye naatak bahut achha lagaa agalee kaDee kaa intajaar rahega shubhkaamanaayen

RAJNISH PARIHAR said...

आप बहुत अच्छा लिखते है...

दिगम्बर नासवा said...

रोचक है सजल जी..............अच्छी शुरुआत है.........सामाजिक कुरीतियों पर अच्छा व्यंग है...........आगे का इंतज़ार रहेगा

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

नाटकीय तत्वों से परिपूर्ण
इस पोस्ट के प्रकाशन पर
बधाई स्वीकारें।

Sajal Ehsaas said...

aap sabo ka in protsaahan bhare shabdo ke liye bahut bahut dhanyvaad :)